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1अय्‍यूब ने और भी अपनी गूढ़ बात उठाई और कहा,

2“भला होता, कि मेरी दशा बीते हुए महीनों की सी होती, जिन दिनों में परमेश्वर मेरी रक्षा करता था,

3जब उसके दीपक का प्रकाश मेरे सिर पर रहता था, और उससे उजियाला पाकर मैं अन्‍धेरे में चलता था।

4वे तो मेरी जवानी** के दिन थे, जब परमेश्वर की मित्रता मेरे डेरे पर प्रगट होती थी।

5उस समय तक तो सर्वशक्तिमान मेरे संग रहता था, और मेरे बच्चे मेरे चारों ओर रहते थे।

6तब मैं अपने पैरों को मलाई से धोता था और मेरे पास की चट्टानों से तेल की धाराएँ बहा करती थीं।

7जब-जब मैं नगर के फाटक की ओर चलकर खुले स्‍थान में अपने बैठने का स्‍थान तैयार करता था,

8तब-तब जवान मुझे देखकर छिप जाते, और पुरनिये उठकर खड़े हो जाते थे।

9हाकिम लोग भी बोलने से रुक जाते, और हाथ से मुँह मूंदे रहते थे।

10प्रधान लोग चुप रहते थे और उनकी जीभ तालू से सट जाती थी।

11क्‍योंकि जब कोई मेरा समाचार सुनता, तब वह मुझे धन्‍य कहता था, और जब कोई मुझे देखता, तब मेरे विषय साक्षी देता था;

12क्‍योंकि मैं दोहाई देनेवाले दीन जन को, और असहाय अनाथ को भी छुड़ाता था।

13जो नाश होने पर था मुझे आशीर्वाद देता था, और मेरे कारण विधवा आनन्‍द के मारे गाती थी।

14मैं धर्म को पहिने रहा, और वह मुझे ढांके रहा; मेरा न्‍याय का काम मेरे लिये बागे और सुन्‍दर पगड़ी का काम देता था।

15मैं अन्‍धों के लिये आँखें, और लंगड़ों के लिये पाँव ठहरता था।

16दरिद्र लोगों का मैं पिता ठहरता था, और जो मेरी पहिचान का न था उसके मुक़द्दमे का हाल मैं पूछताछ करके जान लेता था।

17मैं कुटिल मनुष्‍यों की डाढ़ें तोड़ डालता, और उनका शिकार उनके मुँह से छीनकर बचा लेता था।

18तब मैं सोचता था, ‘मेरे दिन बालू के किनकों के समान अनगिनत होंगे, और अपने ही बसेरे में मेरा प्राण छूटेगा।

19मेरी जड़ जल की ओर फैली,** और मेरी डाली पर ओस रात भर पड़ी,

20मेरी महिमा ज्‍यों की त्‍यों बनी रहेगी, और मेरा धनुष मेरे हाथ में सदा नया होता जाएगा।

21“लोग मेरी ही ओर कान लगाकर ठहरे रहते थे और मेरी सम्‍मति सुनकर चुप रहते थे।

22जब मैं बोल चुकता था, तब वे और कुछ न बोलते थे, मेरी बातें उन पर मेंह की नाई बरसा करती थीं।

23जैसे लोग बरसात की, वैसे ही मेरी भी बाट देखते थे; और जैसे बरसात के अन्‍त की वर्षा के लिये वैसे ही वे मुँह पसारे रहते** थे।**

24जब उनको कुछ आशा न रहती थी तब मैं हंसकर उनको प्रसन्न करता था; और कोई मेरे मुँह को बिगाड़ न सकता था।

25मैं उनका मार्ग चुन लेता, और उन में मुख्‍य ठहरकर बैठा करता था, और जैसा सेना में राजा वा विलाप करनेवालों के बीच शान्‍तिदाता, वैसा ही मैं रहता था।


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