1“परन्तु अब जिनकी अवस्था मुझ से कम है, वे मेरी हँसी करते हैं, वे जिनके पिताओं को मैं अपनी भेड़-बकरियों के कुत्तों के काम के योग्य भी न जानता था।
2उनके भुजबल से मुझे क्या लाभ हो सकता था? उनका पौरुष तो जाता रहा।
3वे दरिद्रता और काल के मारे दुबले पड़े हुए हैं, वे अन्धेरे और सुनसान स्थानों में सुखी धूल फाँकते हैं।
4वे झाड़ी के आसपास का लोनिया साग तोड़ लेते, और झाऊ की जड़ें खाते हैं।
5वे मनुष्यों के बीच में से निकाले जाते हैं, उनके पीछे ऐसी पुकार होती है, जैसी चोर के पीछे।
6डरावने नालों में, भूमि के बिलों में, और चट्टानों में, उन्हें रहना पड़ता है।
7वे झाड़ियों के बीच रेंकते, और बिच्छू पौधों के नीचे इकट्ठे पड़े रहते हैं।
8वे मूढ़ों और नीच लोगों** के वंश हैं जो मार-मार के इस देश से निकाले गए थे।
9“ऐसे ही लोग अब मुझ पर लगते गीत गाते, और मुझ पर ताना मारते हैं।
10वे मुझ से घिन खाकर दूर रहते, व मेरे मुँह पर थूकने से भी नहीं डरते।
11परमेश्वर ने जो मेरी रस्सी खोलकर मुझे दुःख दिया है, इसलिये वे मेरे सामने मुँह में लगाम नहीं रखते।
12मेरी दाहिनी ओर बाज़ारू लोग उठ खड़े होते हैं, वे मेरे पाँव सरका देते हैं, और मेरे नाश के लिये अपने उपाय बान्धते हैं।
13जिनके कोई सहायक नहीं, वे भी मेरे रास्तों को बिगाड़ते, और मेरी विपत्ति को बढ़ाते हैं।
14मानो बड़े नाके से घुसकर वे आ पड़ते हैं, और उजाड़ के बीच में होकर मुझ पर धावा करते हैं।
15मुझ में घबराहट छा गई है, और मेरा रईसपन मानो वायु से उड़ाया गया है, और मेरा कुशल बादल की नाई जाता रहा।
16“और अब मैं शोकसागर में डूबा जाता हूँ;** दुःख के दिनों ने मुझे जकड़ लिया है।
17रात को मेरी हड्डियाँ मेरे अन्दर छिद जाती हैं और मेरी नसों में चैन नहीं पड़ती
18मेरी बीमारी की बहुतायत से मेरे वस्त्र का रूप बदल गया है; वह मेरे कुत्ते के गले की नाई मुझ से लिपटी हुई है।
19उसने मुझ को कीचड़ में फेंक दिया है, और मैं मिट्टी और राख के तुल्य हो गया हूँ।
20मैं तेरी दोहाई देता हूँ, परन्तु तू नहीं सुनता; मैं खड़ा होता हूँ परन्तु तू मेरी ओर घूरने लगता है।
21तू बदलकर मुझ पर कठोर हो गया है; और अपने बली हाथ से मुझे सताता हे।
22तू मुझे वायु पर सवार करके उड़ाता है, और आँधी के पानी में मुझे गला देता है।
23हाँ, मुझे निश्चय है, कि तू मुझे मृत्यु के वश में कर देगा, और उस घर में पहुँचाएगा, जो सब जीवित प्राणियों के लिये ठहराया गया है।
24“तौभी क्या कोई गिरते समय हाथ न बढ़ाएगा? और क्या कोई विपत्ति के समय** दोहाई न देगा?
25क्या मैं उसके लिये रोता नहीं था, जिसके दुर्दिन आते थे? और क्या दरिद्र जन के कारण मैं प्राण में दु:खित न होता था?
26जब मैं कुशल का मार्ग जोहता था, तब विपत्ति आ पड़ी; और जब मैं उजियाले की आशा लगाए था, तब अन्धकार छा गया।
27मेरी अन्तड़ियाँ निरन्तर उबलती रहती हैं और आराम नहीं पातीं; मेरे दुःख के दिन आ गए हैं।
28मैं शोक का पहिरावा पहिने हुए मानो बिना सूर्य की गर्मी के काला हो गया हूँ। और सभा में खड़ा होकर सहायता के लिये दोहाई देता हूँ।
29मैं गीदड़ों का भाई और शुतुर्मुर्गों का संगी हो गया हूँ।
30मेरा चमड़ा काला होकर मुझ पर से गिरता जाता है, और तप के मारे मेरी हड्डियाँ जल गई हैं।
31इस कारण मेरी वीणा से विलाप और मेरी बाँसुरी से रोने की ध्वनि निकलती है।