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1“क्‍या मनुष्‍य को पृथ्‍वी पर कठिन सेवा करनी नहीं पड़ती? क्‍या उसके दिन मजदूर के से नहीं होते?

2जैसा कोई दास छाया की अभिलाषा करे, या मजदूर अपनी मजदूरी की आशा रखे;

3वैसा ही मैं अनर्थ के महीनों का स्‍वामी बनाया गया हूँ, और मेरे लिये क्‍लेश से भरी रातें ठहराई गई हैं।

4जब मैं लेट जाता, तब कहता हूँ, ‘मैं कब उठूँगा?’ और रात कब बीतेगी? और पौ फटने तक छटपटाते-छटपटाते उकता जाता हूँ।

5मेरी देह कीड़ों और मिट्टी के ढेलों से ढकी हुई है; मेरा चमड़ा सिमट जाता, और फिर गल जाता है।

6मेरे दिन जुलाहे की ढरकी से अधिक फुर्ती से चलनेवाले हैं और निराशा में बीते जाते हैं।

7“याद कर कि मेरा जीवन वायु ही है; और मैं अपनी आँखों से कल्‍याण फिर न देखूँगा।

8जो मुझे अब देखता है उसे मैं फिर दिखाई न दूँगा; तेरी आँखें मेरी ओर होंगी परन्‍तु मैं न मिलूँगा।

9जैसे बादल छटकर लोप हो जाता है, वैसे ही अधोलोक में उतरनेवाला फिर वहाँ से नहीं लौट सकता;

10वह अपने घर को फिर लौट न आएगा, और न अपने स्‍थान में फिर मिलेगा।**

11“इसलिये मैं अपना मुँह बन्‍द न रखूंगा; अपने मन का खेद खोलकर कहूँगा; और अपने जीव की कड़ुवाहट के कारण कुड़कुड़ाता रहूँगा।

12क्‍या मैं समुद्र हूँ, या मगरमच्‍छ हूँ, कि तू मुझ पर पहरा बैठाता है?

13जब जब मैं सोचता हूँ कि मुझे खाट पर शान्‍ति मिलेगी, और बिछौने पर मेरा खेद कुछ हल्का होगा;

14तब तब तू मुझे स्‍वप्‍नों से घबरा देता, और दर्शनों से भयभीत कर देता है;

15यहाँ तक कि मेरा जी फाँसी को, और जीवन से मृत्‍यु को अधिक चाहता है।

16मुझे अपने जीवन से घृणा आती है; मैं सर्वदा जीवित रहना नहीं चाहता। मेरा जीवनकाल सांस सा है, इसलिये मुझे छोड़ दे।

17मनुष्‍य क्‍या है, कि तू उसे महत्‍व दे, और अपना मन उस पर लगाए,

18और प्रति भोर को उसकी सुधि ले, और प्रति क्षण उसे जाँचता रहे?

19तू कब तक मेरी ओर आँख लगाए रहेगा, और इतनी देर के लिये भी मुझे न छोड़ेगा कि मैं अपना थूक निगल लूँ?

20हे मनुष्‍यों के ताकनेवाले, मैं ने पाप तो किया होगा, तो मैं ने तेरा क्‍या बिगाड़ा? तू ने क्‍यों मुझ को अपना निशाना बना लिया है, यहाँ तक कि मैं अपने ऊपर आप ही बोझ हुआ हूँ?

21और तू क्‍यों मेरा अपराध क्षमा नहीं करता? और मेरा अधर्म क्‍यों दूर नहीं करता? अब तो मैं मिट्टी में सो जाऊँगा, और तू मुझे यत्‍न से ढूँढ़ेगा पर मेरा पता नहीं मिलेगा।”



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