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1तब तेमानी एलीपज ने कहा,

2“यदि कोई तुझ से कुछ कहने लगे, तो क्‍या तुझे बुरा लगेगा? परन्‍तु बोले बिना कौन रह सकता है?

3सुन, तू ने बहुतों को शिक्षा दी है, और निर्बल लोगों को बलवन्‍त किया है।

4गिरते हुओं को तू ने अपनी बातों से सम्‍भाल लिया, और लड़खड़ाते हुए लोगों** को तू ने बलवन्‍त किया।

5परन्‍तु अब विपत्‍ति तो तुझी पर आ पड़ी, और तू निराश हुआ जाता है; उसने तुझे छुआ और तू घबरा उठा।

6क्‍या परमेश्‍वर का भय ही तेरा आसरा नहीं? और क्‍या तेरी चालचलन जो खरी है तेरी आशा नहीं?

7“क्‍या तुझे मालूम है कि कोई निर्दोष भी कभी नाश हुआ है? या कहीं सज्‍जन भी काट डाले गए?

8मेरे देखने में तो जो पाप को जोतते और दुःख बोते हैं, वही उसको काटते हैं।

9वे तो परमेश्वर की श्‍वास से नाश होते, और उसके क्रोध के झोके से भस्‍म होते हैं।(2 थिस्सलु. 2:8)

10सिंह का गरजना और हिंसक सिंह का दहाड़ना बन्‍द हो पाता है। और जवान सिंहों के दांत तोड़े जाते हैं।

11शिकार न पाकर बूढ़ा सिंह मर जाता है, और सिंहनी के बच्‍चे तितर बितर हो जाते हैं।

12“एक बात चुपके से मेरे पास पहुँचाई गई, और उसकी कुछ भनक मेरे कान में पड़ी।

13रात के स्‍वप्‍नों की चिन्‍ताओं के बीच जब मनुष्‍य गहरी निद्रा में रहते हैं,

14मुझे ऐसी थरथराहट और कँपकँपी लगी कि मेरी सब हड्डियाँ तक हिल उठीं।

15तब एक आत्‍मा मेरे सामने से होकर चली; और मेरी देह के रोएं खड़े हो गए।

16वह चुपचाप ठहर गई और मैं उसकी आकृति को पहिचान न सका। परन्‍तु मेरी आँखों के सामने कोई रूप था; पहले सन्नाटा छाया रहा, फिर मुझे एक शब्‍द सुन पड़ा,

17‘क्‍या नाशमान मनुष्‍य परमेश्वर से अधिक न्‍यायी होगा? क्‍या मनुष्‍य अपने सृजनहार से अधिक पवित्र हो सकता है?

18देख, वह अपने सेवकों पर भरोसा नहीं रखता, और अपने स्‍वर्गदूतों को मूर्ख ठहराता है;

19फिर जो मिट्टी के घरों में रहते हैं, और जिनकी नेव मिट्टी में डाली गई है, और जो पतंगे की नाई पिस जाते हैं, उनकी क्‍या गणना।(2 कुरि. 5:1)

20वे भोर से सांझ तक नाश किए जाते हैं, वे सदा के लिये मिट जाते हैं, और कोई उनका विचार भी नहीं करता।

21क्‍या उनके डेरे की डोरी उनके अन्‍दर ही अन्‍दर नहीं कट जाती? वे बिना बुद्धि के ही मर जाते हैं ?’



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