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1तब यहोवा ने अय्‍यूब को आँधी में से यूँ उत्‍तर दिया,

2“यह कौन है जो अज्ञानता की बातें कहकर युक्ति को बिगाड़ना चाहता है?

3पुरुष की नाई अपनी कमर बान्‍ध ले, क्‍योंकि मैं तुझ से प्रश्‍न करता हूँ, और तू मुझे उत्‍तर दे।(लूका 12:35)

4“जब मैं ने पृथ्‍वी की नेव डाली, तब तू कहाँ था? यदि तू समझदार हो तो उत्‍तर दे।

5उसकी नाप किस ने ठहराई, क्‍या तू जानता है उस पर किस ने सूत खींचा?

6उसकी नेव कौन सी वस्‍तु पर रखी गई, वा किस ने उसके कोने का पत्‍थर बिठाया,

7जब कि भोर के तारे एक संग आनन्‍द से गाते थे और परमेश्‍वर के सब पुत्र जयजयकार करते थे?

8“फिर जब समुद्र ऐसा फूट निकला मानो वह गर्भ से फूट निकला, तब किस ने द्वार बन्दकर उसको रोक दिया;

9जब कि मैं ने उसको बादल पहिनाया और घोर अन्‍धकार में लपेट दिया,

10और उसके लिये सिवाना बान्‍धा** और यह कहकर बेड़े और किवाड़ें लगा दिए,

11‘यहीं तक आ, और आगे न बढ़, और तेरी उमंडनेवाली लहरें यहीं थम जाएँ?’

12क्‍या तू ने जीवन भर में कभी भोर को आज्ञा दी, और पौ को उसका स्‍थान जताया है,

13ताकि वह पृथ्‍वी की छोरों को वश में करे, और दुष्‍ट लोग उसमें से झाड़ दिए जाएँ?

14वह ऐसा बदलता है जैसा मोहर के नीचे चिकनी मिट्टी बदलती है, और सब वस्तुएँ मानो वस्‍त्र पहिने हुए दिखाई देती हैं।

15दुष्‍टों से उनका उजियाला रोक लिया जाता है, और उनकी बढ़ाई हुई बाँह तोड़ी जाती है।

16“क्‍या तू कभी समुद्र के सोतों तक पहुँचा है, वा गहिरे सागर की थाह में कभी चला फिरा है?

17क्‍या मृत्‍यु के फाटक तुझ पर प्रगट हुए, क्‍या तू घोर अन्‍धकार के फाटकों को कभी देखने पाया है?(मत्ती. 16:18)

18क्‍या तू ने पृथ्‍वी की चौड़ाई को पूरी रीति से समझ लिया है? यदि तू यह सब जानता है, तो बतला दे।

19“उजियाले के निवास का मार्ग कहाँ है, और अन्‍धियारे का स्‍थान कहाँ है?

20क्‍या तू उसे उसके सिवाने तक हटा सकता है, और उसके घर की डगर पहिचान सकता है?

21निःसन्‍देह तू यह सब कुछ जानता होगा ! क्‍योंकि तू तो उस समय उत्‍पन्न हुआ था, और तू बहुत आयु का है।

22फिर क्‍या तू कभी हिम के भण्डार में पैठा, वा कभी ओलों के भण्डार को तू ने देखा है,

23जिसको मैं ने संकट के समय और युद्ध और लड़ाई के दिन के लिये रख छोड़ा है?

24किस मार्ग से उजियाला फैलाया जाता है, और पुरवाई पृथ्‍वी पर बहाई** जाती है?

25“महावृष्‍टि के लिये किस ने नाला काटा, और कड़कनेवाली बिजली के लिये मार्ग बनाया है,

26कि निर्जन देश में और जंगल में जहाँ कोई मनुष्‍य नहीं रहता मेंह बरसाकर,

27उजाड़ ही उजाड़ देश को सींचे, और हरी घास उगाए?

28क्‍या मेंह का कोई पिता है, और ओस की बूंदें किस ने उत्‍पन्न की?

29किस के गर्भ से बर्फ निकला है, और आकाश से गिरे हुए पाले को कौन उत्‍पन्न करता है?

30जल पत्‍थर के समान जम जाता है, और गहिरे पानी के ऊपर जमावट होती है।

31“क्‍या तू कचपचिया का गुच्‍छा गूँथ सकता वा मृगशिरा के बन्‍धन खोल सकता है?

32क्‍या तू राशियों को ठीक-ठीक समय पर उदय कर सकता, वा सप्‍तर्षि को साथियों समेत लिए चल सकता है?

33क्‍या तू आकाशमण्डल की विधियाँ जानता और पृथ्‍वी पर उनका अधिकार ठहरा सकता है?

34क्‍या तू बादलों तक अपनी वाणी पहुँचा सकता है, ताकि बहुत जल बरस कर तुझे छिपा ले?

35क्‍या तू बिजली को आज्ञा दे सकता है, कि वह जाए, और तुझ से कहे, ‘मैं उपस्‍थित हूँ?’

36किस ने अन्‍तःकरण में बुद्धि उपजाई, और मन में समझने की शक्ति किस ने दी है?

37कौन बुद्धि से बादलों को गिन सकता है? और कौन आकाश के कुप्‍पों को** उंडेल सकता है,

38जब धूलि जम जाती है, और ढेले एक-दूसरे से सट जाते हैं?

39“क्‍या तू सिंहनी के लिये अहेर पकड़ सकता, और जवान सिंहों का पेट भर सकता है,

40जब वे माँद में बैठे हों और आड़ में घात लगाए दबक कर बैठे हों?

41फिर जब कौवे के बच्‍चे परमेश्वर की दोहाई देते हुए निराहार उड़ते फिरते हैं, तब उनको आहार कौन देता है?


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