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1“मनुष्‍य जो स्‍त्री से उत्‍पन्न होता है, वह थोड़े दिनों का और दु:ख से भरा रहता है।

2वह फूल की नाई खिलता, फिर तोड़ा जाता है; वह छाया की रीति पर ढल जाता, और कहीं ठहरता नहीं।

3फिर क्‍या तू ऐसे पर दृष्‍टि लगाता है? क्‍या तू मुझे अपने साथ कचहरी में घसीटता है?

4अशुद्ध वस्‍तु से शुद्ध वस्‍तु को कौन निकाल सकता है? कोई नहीं।

5मनुष्‍य के दिन नियुक्‍त किए गए हैं, और उसके महीनों की गिनती तेरे पास लिखी है, और तू ने उसके लिये ऐसा सिवाना बान्‍धा है जिसे वह पार नहीं कर सकता,

6इस कारण उससे अपना मुँह फेर ले, कि वह आराम करे, जब तक कि वह मजदूर की नाई अपना दिन पूरा न कर ले।

7वृक्ष की तो आशा रहती है, कि चाहे वह काट डाला भी जाए, तौभी फिर पनपेगा और उससे नर्म-नर्म डालियाँ निकलती ही रहेंगी।

8चाहे उसकी जड़ भूमि में पुरानी भी हो जाए, और उसका ठूंठ मिट्टी में सूख भी जाए,

9तौभी वर्षा** की गन्‍ध पाकर वह फिर पनपेगा, और पौधे की नाई उससे शाखाएं फूटेंगी।

10परन्‍तु पुरुष मर जाता, और पड़ा रहता है; जब उसका प्राण छूट गया, तब वह कहाँ रहा?

11जैसे नील नदी का जल घट जाता है, और जैसे महानद का जल सूखते-सूखते सूख जाता है,

12वैसे ही मनुष्‍य लेट जाता और फिर नहीं उठता; जब तक आकाश बना रहेगा तब तक वह न जागेगा, और न उसकी नींद टूटेगी।

13भला होता कि तू मुझे अधोलोक में छिपा लेता, और जब तक तेरा कोप ठंडा न हो जाए तब तक मुझे छिपाए रखता, और मेरे लिये समय नियुक्‍त करके फिर मेरी सुधि लेता।

14यदि मनुष्‍य मर जाए तो क्‍या वह फिर जीवित होगा? जब तक मेरा छुटकारा न होता तब तक मैं अपनी कठिन सेवा के सारे दिन आशा लगाए रहता।

15तू मुझे बुलाता, और मैं बोलता; तुझे अपने हाथ के बनाए हुए काम की अभिलाषा होती।

16परन्‍तु अब तू मेरे पग-पग को गिनता है, क्‍या तू मेरे पाप की ताक में लगा नहीं रहता?

17मेरे अपराध छाप लगी हुई थैली में हैं, और तू ने मेरे अधर्म को सी रखा है।

18“और निश्‍चय पहाड़ भी गिरते-गिरते नाश हो जाता है, और चट्टान अपने स्‍थान से हट जाती है;

19और पत्‍थर जल से घिस जाते हैं, और भूमि की धूलि उसकी बाढ़ से बहाई जाती है; उसी प्रकार तू मनुष्‍य की आशा को मिटा देता है।

20तू सदा उस पर प्रबल होता, और वह जाता रहता है; तू उसका चेहरा बिगाड़कर उसे निकाल देता है।

21उसके पुत्रों की बड़ाई होती है, और यह उसे नहीं सूझता; और उनकी घटी होती है, परन्‍तु वह उनका हाल नहीं जानता।

22केवल अपने ही कारण उसकी देह को दु:ख होता है; और अपने ही कारण उसका प्राण अन्‍दर ही अन्‍दर शोकित रहता है।”


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