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1हे यहोवा तू क्‍यों दूर खड़ा रहता है? संकट के समय में क्‍यों छिपा रहता है?

2दुष्‍टों के अहंकार के कारण दीन मनुष्‍य खदेड़े जाते हैं; वे अपनी ही निकाली हुई युक्तियों में फँस जाएँ।

3क्‍योंकि दुष्‍ट अपनी अभिलाषा पर घमण्‍ड करता है, और लोभी परमेश्‍वर को त्‍याग देता है और उसका तिरस्‍कार करता है।

4दुष्‍ट अपने अभिमान के कारण कहता है कि वह लेखा नहीं लेने का; उसका पूरा विचार यही है कि कोई परमेश्‍वर है ही नहीं।

5वह अपने मार्ग पर दृढ़ता से बना रहता है; तेरे न्‍याय के विचार ऐसे ऊँचे पर होते हैं, कि उसकी दृष्‍टि वहाँ तक नहीं पहुँचती; जितने उसके विरोधी हैं उन पर वह फुँकारता है।

6वह अपने मन में कहता है कि मैं कभी टलने का नहीं: मैं पीढ़ी से पीढ़ी तक दु:ख से बचा रहूँगा।

7उसका मुँह शाप और छल और अन्‍धेर से भरा है; उत्‍पात और अनर्थ की बातें उसके मुँह में हैं।(रोमि. 3:14)

8वह गाँवों में घात में बैठा करता है, और गुप्‍त स्‍थानों में निर्दोष को घात करता है, उसकी आँखे लाचार की घात में लगी रहती है।

9जैसा सिंह अपनी झाड़ी में वैसा ही वह भी छिपकर घात में बैठा करता है; वह दीन को पकड़ने के लिये घात लगाए रहता है, वह दीन को अपने जाल में फँसाकर घसीट लाता है, तब उसे पकड़ लेता है।

10वह झुक जाता है और वह दबक कर बैठता है; और लाचार लोग उसके महाबली हाथों से पटके जाते हैं।

11वह अपने मन में सोचता है, “ईश्‍वर भूल गया, वह अपना मुँह छिपाता है; वह कभी नहीं देखेगा।”

12उठ, हे यहोवा; हे ईश्‍वर, अपना हाथ बढ़ा; और दीनों को न भूल।

13परमेश्‍वर को दुष्‍ट क्‍यों तुच्‍छ जानता है, और अपने मन में कहता है “तू लेखा न लेगा?”

14तू ने देख लिया है, क्‍योंकि तू उत्‍पात और उत्पीड़न पर दृष्टि रखता है, ताकि उसका पलटा अपने हाथ में रखे; लाचार अपने को तेरे हाथ में सौंपता है; अनाथों का तू ही सहायक रहा है।

15दुष्‍ट की भूजा को तोड़ डाल; और दुर्जन की दुष्‍टता को ढूँढ़-ढूँढ़ कर निकाल जब तक कि सब उसमें से दूर न हो जाए।

16यहोवा अनन्‍तकाल के लिये महाराज है; उसके देश में से जाति-जाति लोग नाश हो गए हैं।(रोमि. 11:26,27)

17हे यहोवा, तू ने नम्र लोगों की अभिलाषा सुनी है; तू उनका मन तैयार करेगा, तू कान लगाकर सुनेगा

18कि अनाथ और पिसे हुए का न्‍याय करे, ताकि मनुष्‍य जो मिट्टी से बना है फिर भय दिखाने न पाए।



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