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1फिर एलीहू इस प्रकार और भी कहता गया,

2“क्‍या तू इसे अपना हक समझता है? क्‍या तू दावा करता है कि तेरा धर्म परमेश्वर के धर्म से अधिक है?

3जो तू कहता है, ‘मुझे इस से क्‍या लाभ? और मुझे पापी होने में और न होने में कौन सा अधिक अन्‍तर है?’

4मैं तुझे और तेरे साथियों को भी एक संग उत्‍तर देता हूँ।

5आकाश की ओर दृष्‍टि करके देख; और आकाशमण्डल को ताक, जो तुझ से ऊँचा है।

6यदि तू ने पाप किया है तो परमेश्वर का क्‍या बिगड़ता है? यदि तेरे अपराध बहुत ही बढ़ जाएँ तौभी तू उसके साथ क्‍या करता है?

7यदि तू धर्मी है तो उसको क्‍या दे देता है; या उसे तेरे हाथ से क्‍या मिल जाता है?

8तेरी दुष्‍टता का फल तुझ जैसे पुरुष के लिये है, और तेरे धर्म का फल भी मनुष्‍य मात्र के लिये है।

9“बहुत अन्‍धेर होने के कारण वे चिल्‍लाते हैं; और बलवान के बाहुबल के कारण वे दोहाई देते हैं।

10तौभी कोई यह नहीं कहता, ‘मेरा सृजनेवाला परमेश्वर कहाँ है, जो रात में भी गीत गवाता है,

11और हमें पृथ्‍वी के पशुओं से अधिक शिक्षा देता, और आकाश के पक्षियों से अधिक बुद्धि देता है?’

12वे दोहाई देते हैं परन्‍तु कोई उत्‍तर नहीं देता, यह बुरे लोगों के घमण्ड के कारण होता है।

13निश्‍चय परमेश्वर व्‍यर्थ बातें कभी नहीं सुनता, और न सर्वशक्तिमान उन पर चित्त लगाता है।

14तो तू क्‍यों कहता है, कि वह मुझे दर्शन नहीं देता, कि यह मुक़द्दमा उसके सामने है, और तू उसकी बाट जोहता हुआ ठहरा है?

15परन्‍तु अभी तो उसने क्रोध करके दण्ड नहीं दिया है, और अभिमान पर चित्‍त बहुत नहीं लगाया;

16इस कारण अय्‍यूब व्‍यर्थ मुँह खोलकर अज्ञानता की बातें बहुत बनाता है।”



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